Copyright © 2007-present by the blog author. All rights reserved. Reproduction including translations, Roman version /modification of any material is not allowed without prior permission. If you are interested in the blog material, please leave a note in the comment box of the blog post of your interest.
कृपया बिना अनुमति के इस ब्लॉग की सामग्री का इस्तेमाल किसी ब्लॉग, वेबसाइट या प्रिंट मे न करे . अनुमति के लिए सम्बंधित पोस्ट के कमेंट बॉक्स में टिप्पणी कर सकते हैं .

Feb 12, 2012

डा. विद्या सागर नौटियाल: श्रद्धांजलि



(*लेख में अधिकतर तथ्य नौटियाल जी की आत्मकथा "मोहन गाता जाएगा" और उनसे की गयी मेरी  रेकॉर्डेड बातचीत पर आधारित है, लेख का कुछ भाग "हंस" पत्रिका के मार्च २०१२ के अंक में छपा है).

खबर मिली  आज डा.  विद्या सागर नौटियाल नहीं   रहे. ७९ वर्ष की आयु में बैंगलोर में उनका देहांत हो गया.  डा. विद्या सागर नौटियाल जी का नाम कई सालों अलग अलग सन्दर्भों में सुनती रही. ०१० में मालूम हुआ डा. विद्या सागर नौटियाल देहरादून में रहते है, अगस्त में जब अपने माता-पिता के घर आयी तो उन्हें एक छोटी सी इमेल उन्हें लिखी कि "आपसे मिलने के लिए मुनासिब समय/दिन  क्या हो सकता है?"  उनका अविलम्ब ज़बाब आया, "प्रिय  सुषमाजी,  मैं  आजकल  एंजियोप्लास्टी के  बाद  घर  पर  आराम  कर  रहा   हूँ. आप  फ़ोन  से  अपनी  सुविधा  का  समय  निश्चित  कर  सकती हैं". अगस्त में जब घर पहुंची तो उनसे मिलना भी हुआ. उन्हें आराम की सख्त हिदायत थी, फिर भी तीन दफे उन्होंने मिलने का समय दिया, बातचीत लगभग ३-४ घंटे की रेकॉर्ड की.   ७७  साल की उम्र में बेहद कमज़ोर शरीर, बहुत क्षीण आवाज़, और बेहद चौकन्ना मस्तिष्क, सरल ह्रदय,  और बेहद सरल जीवन जीते हुए नौटियाल जी, मेरी कल्पना से भी बाहर. इन सब के बीच एक तपा हुया अनुशासन का जीवन, लगातार कंप्यूटर की खटर-पटर, उनके पास बहुत कम समय है, इस बात का इल्म, उन्हें अभी बहुत सी बातें पब्लिक डोमेन में छोड़कर जानी हैं .  
उनसे मिलना ही बेशक इस पूरी यात्रा का  सबसे बड़ा सबब बना. उनसे मिलने से पहले उनकी किताब, "सुरज सबका है" पढी. कई सालों से सुने लोकगीत "बीरू-भड़ू क देश, बावन गढ़ु क देश" का कुछ मतलब इसी किताब से मिला, "गोर्ख्याणी " के पुराने भूले किस्से समय के नक़्शे में फिर कहीं अपनी जगह पाए. फिर तीस साल पहले अपने बचपन के दिनों में भी लौटे, अंगीठी को तापते अपने दादा जी से सुने किस्सों कहानियों की साँझ-और रातों में लौटे.  कुछ किताबें साथ लायी, जिन चार किताबों की प्रति बाज़ार में नहीं थी, उन्हें नौटियाल जी से लेकर इस बीच पढ़ा.  वापस लौटने पर  उनकी इमेल मिली.
"प्रिय  सुषमा  जी, मैं  तो  आपका  अपने  घर  पर  एक  मर्तबा  फिर  से  आने  का  इंतज़ार  कर  रहा  था. इधर  हम  लगातार  बरसते   पानी  से  परेशां  हैं. यह  भी  एक  यादगार  वर्षा  साबित  होगी. आपने  अपनी  पहाड़-यात्राओं  में  जो  नए  अनुभव  हासिल  किये, कृपया  उनको  तत्काल  लिख  डालिए. बाद  में  डीटेल्स याद  नहीं  रहते. उस  दिन  मैंने  गिरदा कि  जीवन-शैली की  बात  शुरू  की  थी. आपने  बताया  था  की  आपने  उनकी  पत्नी  से  बातें  की  हैं . लेकिन  गिरदा  उसके  दो-तीन   ही  दिन  बाद  हमें  छोड़  कर  विदा  हो  गए. मैं  हतप्रभ  हूँ.  पहाड़  क्या, इस  देश  के  अन्दर  अब  कोई  ऐसी  शख्सियत  कभी  जन्म  नहीं  लेगी. वे  जिस  युग  के  अनुभवों  को  साथ  लिए  चलते  थे, वे  दिन  ही  कभी  वापिस  नहीं  आने  वाले  हैं. हम  सबको  आपकी  नई भारत यात्रा  की  प्रतीक्षा  रहेगी".--------विद्या  सागर  
लगभग कुल ज़मा यही तीन स्नेहभरी मुलाकातें हैं. बीच बीच में डेढ़ साल तक उनसे इमेल पर बातचीत होती रही, देहरादून के दुसरे दोस्तों से उनकी खैरियत की पूछताछ भी. आस थी कि अभी कुछ और मुलाकातें उनसे होंगी, क्या पता था २०१० से जिस तरह से हम गिरदा को बिसूरते रहे, दो साल बाद नौटियाल जी भी याद में ही रह जायेंगे.
__________________________________


डा. विद्या सागर नौटियाल का इस वर्ष १२  फरवरी को ७९ वर्ष की आयु में देहांत हो गया.  बेहद चौकन्ना मस्तिष्क, सरल ह्रदय, दुबले पतले नौटियाल जी  ६५ वर्ष से ज्यादा वामपंथी राजनीती में सक्रिय रहे और पहाड़ की जमीन , जीवन अनुभवों, और लोगों के साथ गहरे जुड़ाव से उपजी उनकी कहानियां पहाड़ के कठिन जीवन की  प्रमाणिक  झलक है. विद्या सागर इस मायने में विलक्षण साहित्यकार थे कि लम्बे राजनीतिक जीवन के बावजूद उनके साहित्य में राजनैतिक  नारेबाजी  नहीं है, लेकिन जन की पीड़ा के गहरे चित्र, बंधी नैतिकता को मानवीय आधार पर चुनौती, और  जीवन अनुभवों  से उनका साहित्य समृद्ध  है.  अपनी जड़- और जमीन से उपजा साहित्य है, किसी अमूर्त दुनिया में इसका सृजन नही हुआ.  उनके ही अनुसार 
"अपने लोगों की यह कथा जिसे अनेक वर्षों तक मैंने अपने भीतर जिया है, अपने को अपने समाज का ऋणी  मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ, साहित्य मेरे लिए मौज मस्ती का साधन नहीं , जिन्दगी की ज़रुरत है. लेखन के काम को में एक फ़र्ज़ की तरह अंजाम देता हूँ. किसी प्रकार की हडबडी के बगैर लिखता हूँ, और किसी की फ़रमईश पर नहीं लिखता. जो मन में आये वो लिखता हूँ. सिर्फ वही लिखता हूँ". 

बचपन और विद्यार्थी जीवन
 20 सितंबर 1933 को टिहरी के मालीदेवल गांव में राजगुरु कुल में  विद्या सागर जी का जन्म हुआ. उनके पिता नारायण दत्त नौटियाल वन विभाग में अधिकारी थे व माँ रत्ना सावली गाँव के भट्ट परिवार से थी. उनका बचपन टिहरी रियासत के घनघोर जंगलों के बीच बीता, और ११-१२ साल की उम्र में प्रताप इंटर कोलेज में पढने के लिए टिहरी शहर आ गए.  इसी कच्ची  उम्र में  राजनीती और लिखने -पढने की उनके जीवन में साथ साथ पैठ बननी शुरू हुयी. इन्हीं दिनों वो शंकर दत्त डोभाल के संपर्क में आये और रियासत के भीतर राजशाही के खिलाफ चले प्रजामंडल आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे, "श्रीमन जी" के साथ गाँव-गाँव पैदल यात्रा करने का मौका मिला, और नागेन्द्र सकलानी जैसे नेताओं का असर पड़ा. इसी उम्र में एक कविता संग्रह उन्होंने तैयार किया था, जो कभी छपा नहीं, और गुम हो गया था.  जल्द ही भारत आज़ाद हो गया परन्तु टिहरी की जनता को राज शाही से मुक्ति नही मिली. रियासत की जनता प्रजामंडल की अगुआई में सम्पूर्ण भारत की आजादी की तरह टिहरी के भीतर भी आजादी की मांग को लेकर आन्दोलन और धरने पर बैठ गयी. १७ अगस्त १९४७ को राजशाही के खिलाफ धरने में शामिल होने के कारण सिर्फ 13 साल की उम्र में उन्हें राजद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया.  हाईस्कूल के बाद  विद्या सागर टिहरी रियासत से बाहर निकल आये और आगे की पढ़ाई क्रमश: देहरादून और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से की, जहां उनकी सक्रियता वामपंथी छात्र आन्दोलन में रही . बनारस में उन्हें पी. सी. जोशी, मोहन उप्रेती, नईमा उप्रेती,  रुस्तम सैटिन, जैसे राजनैतिक साथी मिले, बाबा  नागार्जुन, नामवर सिंह, केदार नाथ सिंह आदि साहित्य धर्मी मित्र मिले. बीएचयू में अंग्रेजी साहित्य से एम. ए.  के दौरान आंदोलन में सक्रियता के चलते उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया. १९५३  व १९५७  में बीएचयू छात्र संसद के "प्रधानमंत्री" (अध्यक्ष के लिए शायद यही शब्द था)  और  १९५८  में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन एआईएसएफ के  राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए.  इसी वर्ष उन्होंने वियना में हुए अंतर्राष्ट्रीय युवा सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया. 
छात्र जीवन में ही १९५३-५४ में उनकी कहानी ‘भैंस का कट्या’, "मेरा जीवन एक खुली किताब है "  और "मूक बलिदान’" छपीं. कहानी लिखने के शुरुआत दिनों  में वे यशपाल से प्रेरित रहे. 

 टिहरी वापसी, देशभक्तों की कैद में , विधायक 
 १९५९ में वापस टिहरी आने के बाद नौटियाल जी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए  और अगले कई वर्षों तक उन्होंने कहानियाँ नही लिखीं, एक तरह से साहित्य से वनवास ले लिया और आदमी नामक जीव और अपने आस-पास के जीवन को पढ़ते रहे. टिहरी  में नये  सिरे से संगठन की शुरुआत की और दो वर्षों तक गुणानंद पथिक और दलेब सिंह असवाल के साथ हाथ में लाल झंडा लिए टिहरी, उत्तरकाशी और चमोली के गाँव गाँव में घूमते रहे. टिहरी में इस बीच राजशाही ख़त्म हुयी और भारत चीन युद्ध शुरू हो गया और बहुत से वामपंथी नेताओं के साथ विद्यासागर जी को भी २२ महीने के लिए जेल भेज दिया गया. अपनी गिरिफ्तारी के समय वो चीन-भारत विवाद से उत्पन्न परिस्थिति में सुरक्षा कार्यों में जन सहयोग संगठित करने के लिए टिहरी में  प्रचार कर रहे थे. उन दिनों की याद में उन्होंने लिखा है.
"चीन ने भारत पर हमला किया था, कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता होने के कारण हमें चीन समर्थक मान लिया गया था, और जेल में बंद कर दिया गया था. भारत सुरक्षा अधिनियम में  बगैर कारण  बताये, बगैर मुकदमा चलाये, बंद करने का अधिकार सरकार को मिल गया था". 
बरेली की जेल में उनके साथ मोहन उप्रेती और चन्द्र सिंह गढ़वाली भी थे. उन दिनों के संस्मरण उन्होंने "देशभक्तों की कैद" नाम से लिखे है, और कुछ वाकये  उनकी संस्मरण पर आधारित  "मोहन गाता जाएगा" (२००४, राधाकृष्ण प्रकाशन) में हैं.  इस किताब को पढने के बाद उनकी दूसरी रचनाएँ और जीवन के साथ उनके अंतर्संबंध की भी कुछ झलक मिली. बहुत  मीठेपन से  नौटियाल जी ने उन दिनों के जेल वाले  करिश्माई मोहन उप्रेती को याद किया है, जेल के भीतर उनकी गायकी की रंगत, कैदियों के बीच नृत्य नाटिका का आयोजन, और जेल प्रशासन को किस तरह उप्रेती जी ने अपना मुरीद बना डाला.   बाद के वर्षों में उन्होंने वकालत की पढ़ाई की, साहित्य में पी.एच डी.  भी की.  लम्बे समय तक सबसे गरीब लोगों का कानूनी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व करते रहे. वन आंदोलन, चिपको आंदोलन के साथ वे टिहरी बांध विरोधी आंदोलन में भी जनता के पक्ष में लड़ते रहे और  1980 में देवप्रयाग से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए. शायद भारत के लोकतंत्र के इतिहास में वो अकेले जननेता होंगे जिन्होंने महीनों महीनों दूर दराज़ के क्षेत्रों की लम्बी पैदल यात्राएं की, लोगो की बात सुनीं  और जितना भी संभव हुया उनकी बात आगे रखी, और एक मामूली दो कमरे के घर में अपना पारिवारिक जीवन बिताया.   
टिहरी की जमीन से बेदख़ल और तीस वर्ष बाद साहित्य में  वापसी 
टिहरी बाँध की परियोजना में अपनी घर जमीन से नौटियाल जी भी बेदखल हुए और देहरादून बसे. परन्तु उनका सिर्फ भोगोलिक विस्थापन ही हुआ, ये साहित्य के ज़रिये टिहरी वापस लौटना और उस डूबी जमीन पर शेष जीवन खड़े रहने की शुरुआत थी.  ३० वर्षों बाद १९८४ में  "टिहरी की कहानियां" राजकमल प्रकाशन से छपीं और ६० साल की उम्र में फिर उन्होंने साहित्य की तरफ रुख किया.  जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं. जिनमें "भीम अकेला", "सूरज सबका है", "सरोज का सन्निपात", "उत्तर बायाँ है",  "स्वर्ग दद्दा पाणि पाणि", "फट जा पंचधार", "यमुना के बाग़ी बेटे",  "मेरी कथा यात्रा " और "मोहन गाता जाएगा"  प्रमुख है.  अपने साहित्य में नौटियाल जी कभी टिहरी के बाहर नही गए, विश्व बंधुत्व की उदारता और राजनीती में अंतर रास्ट्रीयता के हिमायती होने के बावजूद उनके रचना की भूमी यही रही, जिसे वो बहुत गहरे पहचानते थे, जिसे पैदल वर्षों तक उन्होंने नापा था, जिनके भीतर रहने वाले लाखों लोगों के सुख दुःख और सपनों के वे भागीदार थे.
"पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है, जैसा वह दो  घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है.  पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रोशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है.  सूरज, नदियां, घाटियां और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग, ये सब शक्ति देते हैं.  उच्च शिखरों पर बुग्यालों के रंगीन कालीन के ऊपर बैठकर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करने लगते हैं. लेकिन इन पहाड़ों में भीतर जीवन विकट है.  याद रखना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे.  मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया.  इसे छोड़कर कहीं बाहर भाग जाने की बात नहीं सोची.  अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अंदर घिरा रहा.  टिहरी के बाहर नहीं निकला. निकलूंगा भी नहीं". 
उनकी किताबें पढतें हुए अजब खुशी से मन भरता है, हिम्मत से भी... एक जीवन इतना समृद्ध, इतना सरल और रचनाधर्मिता से लाबाबब. बिना औपचारिकता के, बिना दिखावे के, बिना साज सामान, जैसे किसी फालतू चीज़ की उसमें जगह नहीं. जीवन जिसने बहुत बहुत समाज को दिया, लिया बहुत बहुत कम... 
_____________________________________
नौटियाल जी को याद करते हुए नवीन जी ने  यहाँ और और शिव प्रसाद जोशी जी ने  यहाँ लिखा है, पल्लव कुमार से बातचीत यहाँ है. अब उन्हें कुछ जानना उन्हें जानने वालों के मार्फ़त भी जानना होगा. शिव जोशी की नौटियाल जी से बातचीत हिलवाणी में सुनी जा सकती है.

5 comments:

  1. नौटियाल जी के नाम से तो परिचित था, बदकिस्मती से उन्हें पढ़ा नहीं था। अब अचानक आप लोगों के मार्फत उन्हें पढ़ने जैसा लग रहा है। संस्मरमों वाली पुस्तक तो एकदम पढ़ने का जी कर रहा है।

    ReplyDelete
  2. धीरेश की तरह ही मुझे भी इस पोस्ट से उनके बारे में अधिक जानने का मौका लिया, इसके लिये आपको धन्यवाद।

    ReplyDelete
  3. धीरेश, नीरज, आपके कमेन्ट के लिए शुक्रिया! नौटियाल जी चुपचाप काम करने वाले जीव थे. हिंदी साहित्य के प्रायोजित कार्यक्रम का हिस्सा नही थे, इसीलिए संभवत: साहित्य की दुनिया के वैसे हीरो नहीं है. उनके बारे में जिस तरह की चुप्पी उत्तराखंड से बाहर छायी हुयी है, वो हमारे समाज के बारे में काफी कुछ कहती है, नही तो कितने ही self promoting घटिया साहित्यकारों की छींक पर/ किसी के चश्में पर, या अदाबाजी पर भी दिनों दिन बहस चलती है, फेसबुक और ब्लॉग भर जाते है.

    ReplyDelete
  4. तब हम एक तरह से बच्चे जैसे ही थे. दुबले-पतले विद्यासागर नौटियाल देहरादून की किसी गोष्ठी या आंदोलन में अक्सर दिखते थे. उनसे बातचीत का मौक़ा कभी मिला नहीं. सिर्फ़ नमस्ते करते थे. सालों बाद किसी कार्यक्रम में मिले तो मैंने उन दिनों का जिक्र किया. वे बहुत प्रेम से मिले. उनकी सादगी, पक्षधरता और स्मृति को सलाम.

    ReplyDelete
  5. नौटियाल जी पर आपने बेहद समृद्ध आलेख लिखा है और आत्मीय भी. उन्हें श्रद्धांजलि और सलाम

    ReplyDelete

असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।