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Jan 20, 2012

सायंस और सोसायटी

सेन डियागो में प्लांटस  एंड एनिमल जेनोम की सालाना मीटींग है,  अच्छी किस्मत रही की मीटिंग के दिनों पूरी फुर्सत से मीटिंग अटेंड की, होटल में एक अच्छी बेबी-सिटर मिल गयी, एक दादी की उम्र की महिला, जिसके अपने नाती-पोते हैं. एक स्कूल की रिटायर्ड टीचर, जल्दी ही बच्चों के साथ घुल मिल गयी है.  छोटे बच्चों की माँ के लिए १२-१४ घंटे चलने वाली मीटींग में शिरकत करना लगातार ३-५ दिन तक आसन नहीं होता, खासकर जब पति-पत्नी एक ही चरखे पर दौड़ रहे हो. पिछले कई सालों में बहुत सी ऎसी मीटिंग्स हम लोग साथ साथ नहीं अटेंड कर सके. अमेरिकन सोसायटी फॉर प्लांट बायलोजी ने कुछ वर्ष पहले एक नीती बनायी थी कि यदि पति-पत्नी मीटिंग अटेंड कर रहे हैं, उनके बच्चों की देखरेख के लिए वो इंतजाम करेंगे. किन्हीं वजहों से ये अब तक मुमकिन नहीं हो सका, क्यूंकि मीटिंग के कांफेरेंस सेंटर की  बीमा पालिसी इसके आड़े आती रही. फिर भी अगर हमने व्यक्तिगत रूप से किसी को बेबी सीटिंग के लिए रखा तो उसकी कीमत का कुछ हिस्सा उन्होंने वापस किया हैं. इस तरह के सरोकारों का किसी पालिसी में तब्दील होना बहुत से वैज्ञानिकों जिनके छोटे बच्चे है, उन्हें कुछ तसल्ली के साथ काम करने का माहौल देता है. कोर्नेल के पोस्टडोक दिनों में मेरी सेलरी का ८०% भाग दो बच्चों की देखरेख में चला जाता था. हाथ में बहुत कम पैसे आते थे, पर ८ घंटे का समय मिलता था जिसमे कुछ काम किया जा सकता था. आर्थिक फायदे नुकसान  से बहुत ऊपर कुछ रचात्मकता का सुख और नए सीखने की चाह बनी रहती थी. एक दशक पहले  कोर्नेल ने अपने पी. एच. डी. छात्रों और पोस्टडोक माताओं के लिए एक बड़ी मामूली से पहल की थी, चाइल्ड केयर ग्रांट की. उस ग्रांट में से दो दफे कुछ एक एक महीने की चाइल्ड केयर की फीस रिफंड हुयी. इतने सालों के बाद भी मुझे उसे अक्नोलेज करते हुए खुशी होती है. बहुत सी दूसरी जगहों में इस तरह का ख्याल अभी बना नहीं है, और उस ग्रांट के बारे में सुनते हुए भद्र वैज्ञानिकों की तिरछी मुस्कान भी दिखती है, फिर कोई ऐसा स्वर भी जो इस ग्रांट के महत्तव को समझता है. इतने दिनों बाद कल एक पुराने कोर्नेल के डिपार्टमेंट हेड से बात करते हुए मैंने इस ग्रांट को याद किया और एक नयी ग्रांट के बारे में पता चला की अब इस तरह की मीटिंग में जाने के लिए कोर्नेल की फेकल्टी को अपने साथ बेबी सिटर को लेजाने और उसके समय की कीमत को कवर करती नयी फेलोशिप अस्तित्व में आयी है. सायंस और टेक्नोलोजी  में औरतों की कम भागीदारी, और पलायन के रोने-गाने से बहुत बहुत अच्छी ये छोटी छोटी पहल है, जो उन्हें सक्षम बनाती है.
पुराने कई परिचित मिले. पुराने दिनों के  की संगत के बीच फैले स्नेह सूत्र भी फिर से दिखे. उस भोली उम्र के उत्साह की यादें,  कुछ मामूली महीन जानकारियों के बीच टांग खींचने के अवसर और लुत्फ़ बचे रह गए है. कोर्नेल के बहुत से पुराने परिचित फिर से मिले, उनसे फिर अब ३-४ साल बाद मिलना अच्छा लगा, नए लोगों से बात हुयी, बहुत सी नयी जानकारियों के बीच लगता है कितने पीछे छूटती चली जा रही हूँ.
पिछले दशक की सायंस हाईथ्रूपुट टेक्नोलोजी से ड्रिवन रही है, इतना डाटा, कि उसका ठीक ठीक ज्ञान और सूचना में तब्दीली कठिन काम है,  ली हूड अपने प्लेनरी लेक्चर  में आने वाले दस सालों में हेल्थ इंडस्ट्री के बारे में कई अनुमान प्रोजेक्ट करते हुये ये भी कहते है कि हर परिवार का जीनोम सीक्वेंस हो जाएगा, मेडिसिन और ट्रीटमेंट्स बेहद व्यक्ति केन्द्रित हो जायेंगे. बहुत सी नयी डायग्नोसिस की बात करते है. उन्हें सुनते हुये मुझे "Gattaca" की याद आती है. टेक्नोलोजी ड्रिवन समाज की सोच कर कुछ सिहरन होती है.
भारत में अब पिछले २०-२५ साल वाली आर्थिक स्थिति नहीं है कि रिसर्च के लिए सामान और पैसा न हो. आज कई नए इंस्टीटयूट बने है, महल सरीखे, ऐसी सजधज के साथ नए यूरोपीयन और अमेरिकी इंस्टीटयूट भी नही बने है पिछले दशक में, हर नए से नए मॉडल का इंस्ट्रूमेंट वहां है, अगर कोई काम करना चाहे तो किसी तरह की भौतिक सीमा काम करने के आड़े नहीं है. रिसर्च के लिए आज कई गुना बड़ा बजट है. परन्तु, कोई बड़ा विजन सायंस और सायंस की नीती को गवरन करता नही  दिखता. तुगलकशाही और मठ तो हिन्दुस्तानी सायंस में बहुत पहले से थे, अब दुसरे विद्रूप भी पैठ बना चुके है. 
बहुत से भारतीय वैज्ञानिक भी मिले, उनमे से कुछ स्वदेश लौटने की कशमकश के बीच थे, कुछ वहां जाकर फिर वापस लौट आयें है, बहुत बुरे अनुभव और अपमान साथ लेकर लौटें हैं. अयादुरई की कहानी तो पब्लिक डोमेन में है ही. शिवा के किसी फेन का ब्लॉग है "freedom for science"   . जहां इस बहस के कई बिंदु समझ में आते हैं. ये एक वीडियो भी है. शिवा की कहानी और ढेर से दुसरे वैज्ञानिकों की व्यक्तिगत कहानियों की तरह ये चीज़े ख़त्म न हो, हमारे समाज की चेतना का भी ये हिस्सा बने. समाज के खून पसीने की कमाई से भारत में विज्ञान का कारोबार चलता है, इसीलिए सायंस कोई टापू नहीं है, समाज के साथ, समाज की स्वतंत्रा और संस्कृति के साथ उसका गहरा रिश्ता है, और उसकी अकाउंटेबिलिटी पारदर्शी हो, ये प्रक्रिया स्वस्थ दिशा में बढे इस उम्मीद में ये वीडियों  चस्पा कर रही हूँ.


बहुत सी कहानियां, और बहुत बुरी कहानियां मिडिल और एंट्री लेवल के वैज्ञानिकों के अनुभव की हैं, जो शायद ही कभी पब्लिक डोमेन में आयें, हमारी सामाजिक स्मृति और समय का हिस्सा बनें. पोपुलर मीडीया  भारत से ब्रेनड्रेन की उथली कहानी को बेच कर अपना सुख पाता है. जबकि सच्चाई  ये भी है कि सायंस का भी एक प्रभु वर्ग है, जिसके हाथों में सारे संसाधन, और ताकत, अकूत तुगलकी सत्ता है, बहुत बहुत पैसा है, और उसके पैरों के नीचे दबी लाखों गरदनें है. ब्रेन-ड्रेन में वैज्ञानिकों का कुछ डालर कमा लेने की आकांशा से कई अधिक प्रतिशत देश में काम करने के समुचित अवसरों का न मिलना है, और अगर मिल भी गया तो वहां का दमघोटू सामंती कामकाज का माहौल है. बकौल अयादुरई के "Our interaction with CSIR scientists revealed that they work in a medieval, feudal environment," says Ayyadurai. "Our report said the system required a major overhaul because innovation cannot take place in this environment.". 
ये कहानी वैसे भी एक बहुत टॉप लेवल के अमेरिका में शिक्षित और पले-बढे वैज्ञानिक मर्द की है, जिसकी योग्यता और ट्रेनिंग पर कोई प्रश्नचिन्ह नही है. इसे कोई ऐसे ही खारिज नहीं कर सकता. औरतों की समान्तर कहानियाँ अभी हालिया एक सर्वेक्षण में आयी है की भारत में ६०% पी एच डी महिला वैज्ञानिक बेरोजगार है, उन्हें नौकरियां नही मिलीं. सायंस और सोसायटी के बीच का जो आयरन कर्टन है, उसे अब हटना ही है, धीरे-धीरे ही सही, तभी सायंस की उन्मुक्त रचनाशीलता को भी तभी रास्ता मिलेगा...

4 comments:

  1. महिला वैज्ञानिकों और मां-वैज्ञानिकों(समाज-विज्ञानियों भी,शायद) के प्रति बढ़ रही चेतना के बारे में जानकर अच्छा लगा। अनुकरणीय है ।

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  2. ।सायंस और टेक्नोलोजी में औरतों की कम भागीदारी, और पलायन के रोने-गाने से बहुत बहुत अच्छी ये छोटी छोटी पहल है, जो उन्हें सक्षम बनाती है.पूरी तरह सहमत ! यह लेख चोखेरबाली पर भी डाल दीजिए।

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  3. डॉक्टर अयादुरई के साथ जो हुआ बहुत दुखद है.भारत में विज्ञान का भविष्य उज्ज्वल नहीं नजर आता.संस्थान या लैब बना लेने भर से हम आगे नहीं बढ़ सकते.सोच में बदलाव की आवश्यकता है.
    आप बच्चों को साथ लेकर मीटिंग अटेंड कर सकीं यह जानकर अच्छा लगा.
    घुघूतीबासूती

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  4. डॉ.सुषमा जी .
    वैज्ञानिक मनोवृत्ति के माहौल ,संस्कार जिसमें नियमित सायिनटीफिक अमेरिकन ,साईंस रिपोर्टर ,विज्ञान प्रगति पढने की अभिरुचि .कालांतर में शौकिया विज्ञान संचारक होने जैसी बातों के बावजूद मैंने भी अपने बच्चों को इंटरमीडिएट तक साईंस की शिक्षा के बाद उन्हें आर्ट्स ,हुमैनिटीज दिला दिया जहाँ उनका भविष्य सेक्योर है ....यहाँ विज्ञान के करियर का भुत रोना है ...यहाँ ब्यूरोक्रेसी और नेतागीरी ने विज्ञान का दम घोट दिया है -यहाँ वही वैज्ञानिक चमक धमक लिए हैं जिन्होंने सरकार के मंत्रियों से सुर ताल मिला लिया है ...ऐसे वैज्ञानिकों की भी लाबी है और वे ब्यूरोक्रेट से भी बदतर लोग हैं -अभी इसरो के पूर्व अध्यक्ष को काली सूची में डालने की कहानी के पीछे ऐसे ही कई कुत्सित चेहरे हैं ....कई अला वैज्ञानिक मुखिया केवल सरकार के मंत्रियों के निर्वाचन क्षेत्र को चमकाने में सारी ताकत संसाधन लगाये रहते हैं ......आप लोग क्यों इस पर संगठित होकर एक श्वेत पत्र की मांग भारत सरकार से करते ....यहाँ के वैज्ञानिकों से उम्मीद नहीं है और दुसरे क्यों इस लफड़े में पड़े ...वैसे भी वैज्ञानिकों की कोई लोक गम्यता ,आम आदमी के सुख दुःख के प्रति कोई संवेदना तो रही नहीं ..अब जगदीश चन्द्र बोस या सी वी रमण ,भाभा ,गोवारीकर सरीखे लोक प्रिय वैज्ञानिकों की परम्परा लुप्त हो गयी लगती है !

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