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Nov 20, 2010

पहाड़ डायरी 2010-०४

त्तराखंड के जौनसार हिस्से में कभी मेरा जाना नहीं हुआ था. जौनसार के बारें में हालांकि बचपन से कई किस्से, किवदंतियां, गढ़वाल और कुमायूं के मुख्यधारा के समाज से अलग पहचान के आख्यान भी सुने थे. इन सब बातों के बीच जौनसार को लेकर मन के भीतर कुछ दबा आकर्षण, बचपन के सुने जौनसारी ज़ादू के किस्से भी थे.  गढ़वाल के कई गाँवों में जौनसारी औरतों की खूबसूरती के, उनके मायावी होने के, आदमी को खाडू (नर भेड़) में बदल देने के किस्से आम-फहम थे. इन किस्सों के बीच बचपन में बड़ी सांत्वना रहती थी, कि कभी गयी तो  सही सलामत आ सकूंगी. औरतों को बकरी में बदलने का एक भी किस्सा न था.  

हाड़ के उबड़ खाबड़ भूगोल में, जहाँ दो पीढी पहले तक पैदल चलने के अलावा दूर दराज़ के क्षेत्रों में पहुँचने का कोई साधन न था, १० मील की दूरी भी बहुत दूर किसी दूसरे प्रदेश तक की लगती रही होगी. जौनसार और गढ़वाल के लोगों के बीच भी सीधे बातचीत के मौके बहुत नहीं थे.  कुमायूं-गढ़वाल के बीच कुछ मौके फिर भी दुसांध के इलाके में थे, और फिर सरकारी नौकरी में जाने वालों के पास, बाकी बड़ी संख्या में अनुमान थे, और अकसर फिर ज़ादू की कहानियां, कुमायूं में गढ़वाल के ज्योतिष और ज़ादू के, गढ़वाल में काली कुमायूं के जादू के.  इस पूरे इलाके में मिथकीय ज़ादू भले ही न हो, प्रकृति की खूबसूरती और लोगों के सहजमना होने का जादू ज़रूर है, वही ज़ादू खींचता है बार-बार,

ढ़वाल की ही तरह जौनसार में भी महाभारत से जुड़े  तमाम किस्से है, चकरोता के पास लाखागृह, हनोल देवता का मंदिर इसी इलाके में है.  हनोल मंदिर का पुजारी मुख्यत: कोई  ठाकुर ही होता है. बीच रास्ते एक छोटे गाँव इछिला में एक दोपहर रुकना हुया १५ अगस्त के दिन, कुछ गलतफहमी थी कि जौंसारियों का एक बड़ा त्यौहार कोदो-संक्रांति १५ को है. दरअसल वों १६ को थी. फिर भी कुछ अनाज कूटे जा रहे थे, कुछ लोग छुट्टी लेकर एक दिन पहले गाँव पहुंचे हुये थे. ढ़ेर से बच्चे थे, जिन्होंने कुछ पारंपरिक गाने सुनाये. गाँव में हमें कुछ चाय पिलाई गयी और कुछ झंगोरा की एक पोटली मिली. झंगोरा  बाजरे सा एक पहाडी अनाज है, जिसे में खासतौर पर अपने पति को दिखाना चाहती थी, हरित क्रांती की बाढ़ में बहुत से छोटे अनाज मुख्य धारा से गायब हुये है, और उनका कुछ लोकल अस्तित्व ही बचा है. जहाँ एक तरफ लगातार, गेंहू और चावल ने लोगो का पेट भरा, बड़ी मंडियां भरी, वहीं  बहुत से छोटे अनाजों पर लोगों की निर्भरता समाप्त हुयी है. उसका एक सीधा परिणाम संभवत: भरपेट लोगों में भी बड़ी मात्रा में कुछ हद तक कुपोषण है. छोटे अनाज सिर्फ अपने अच्छे पोषक तत्वों के अलावा भी महत्वपूर्ण इसीलिए है कि बिना खाद, और बिना कीटनाशक के भी इनकी पैदावार अच्छी होती है, सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती.

भारत में हरित क्रांति जिस तरह से कुछ सालों के लिए गेहूं और चावल की पैदावार बढाने में सक्षम हुयी है, वों बहुत लम्बे समय तक का समाधान नहीं है. उसके 4० सालों से लगातार खाद और सिंचाई पर निर्भरता ने बहुत बड़े हिस्से की जमीन को प्रदूषित किया है, और जमीन की उर्वरता भी कम होगी. भू जल का स्तर भी संभवत: नीचे गिरा होगा. दुनिया की बढ़ती आबादी, कुपोषण और भूख का समाधान भविष्य में कुछ हद तक फिर से छोटे अनाजों की तरफ लौटना भी एक कदम हो सकता है. खासकर भारत के उलट अफ्रीका में हरित क्रांती अगर फेल हुयी तो उसका एक बड़ा कारण सिंचाई के लिए पानी का न होना, और वहां के लोकल अनाज के बजाय मक्का और दूसरे अनाजों को उगाये जाने का जोर रहा जो उस जमीन के लिए अनुकूल नहीं थे. आज पिछले एक-डेढ़ दशक से अफ्रीका की जमीन में हज़ारों सालों से जो अनाज उगाये जाते रहे है, उनकी और लौटना ही संभवत: एक अच्छा कदम है और कुछ अच्छी खबरे इस दिशा में आ रही है. 

जौनसार की अच्छी खेती देखकर कुछ हद तक मन तर गया. अब भी बड़ी मात्रा में मिर्च, अदरक, हल्दी, मक्का, कोदो, चूड़ी, अरबी, और भी कुछ अनाज अच्छी उपज दे रहे थे और उनको बेचकर लोग अच्छे पैसे कमा रहे थे. इस तरह से अपने लोकल रिसोर्सेज़ पर निर्भरता देखकर और लोगों का संपन्न जीवन देखकर, स्वस्थ बच्चे देखकर अच्छा लगा. इन सबके बीच फिर बंदरों की और जंगली सूअरों की खेती को नुकसान पहुंचाने वाली तकलीफ़ का समाधान लोगों के पास नहीं है.   कुछ लोगो रात को २-३ बजे  भी अपने खेत बचाने के लिए जानवरों को हांक आते है. खेती पर इस तरह की मेहनत करने वाली पीढ़ी पहाड़ में कब तक बचेगी इसके बारे में अमूमन सभी बुजुर्गों की एक ही राय है नयी पीढ़ी मेहनत करना नहीं चाहती और उसके सपने शहर जाकर कोइ नौकरी पकड़ने के है. और खासकर लडकियां इतनी पढ़ गयी है की नौकरी मिलेगी नहीं और खेती वो करेंगी नहीं, तो शिक्षा ने बंटाधार किया है" 


 यी पीढ़ी मेहनत करे या न करे मेहनत करने को वैसे भी पर्याप्त जमीन पहाड़ के लोगों के पास नहीं है, उससे लंबे समय तक परिवार गुजारा कर सकें. अभी भी जो गाँव में कुछ लोग खेती पर आधारित जीविका चला रहे है, वो इसीलिए संभव हुया है की गाँव छोड़कर अधिकतर लोग चले गए है और बचे लोगों के पास वो जमीन है. पहाड़ की ८०% जमीन वैसे भी जंगलात के कब्ज़े में है. १८९२ से लेकर १९८० तक लगातार पहाड़ की जमीन पर जंगलात का कब्ज़ा बढ़ा है. जो जमीन पहले पशुओं के चारागाह की तरह इस्तेमाल होती थी, वन पंचायत की जमीन थी, और गाँव की लकड़ी, घास और सामूहिक उपयोग की जमीन थी, उसे कई किश्तों में पिछले १५० साल में वन विभाग ने कब्ज़ा किया है. ब्रिटिश राज ने सामूहिक स्वामित्व के अधिकार को अवैध  करार दिया और सिर्फ उस जमीन को लोगों के पास रहने दिया जहां हल से जुताई होती थी. ब्रिटिश राज में वन विभाग की जो नीव डाली गयी उसका मुख्य उद्देश्य जंगल की लकड़ी पर कब्ज़ा था. पहाड़ में जो दूर दराज़ तक सडकों का जाल फैला वो इसी लकड़ी को पहाड़ से लाने के लिए फैला. माधव गाडगिल व् रामचंद्र गुहा की किताब  This Fissured Land: An Ecological History of India“ जंगल पर कब्ज़े के इतिहास, उस पर प्रतिरोध के इतिहास, और उस लकड़ी का कितना कारोबार हुआ उसका आख्यान है. पहाड़ की इस लकड़ी का इस्तेमाल रेल के लिए हुआ, हिन्दुस्तान और उसके बाहर भी दूसरे देशों के लिए, प्रथम विश्वयुद्ध के दरमियान पानी के जहाज़ बनाने के लिए भी. अरब देशों में चली कुछ लड़ाईयों के लिए भी हिन्दुस्तान भर के जंगलों का दोहन हुआ. कुछ हद तक फोरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट के देहरादून में होने के तार पहाड़ की इसी बेशकीमती लकड़ी के कारोबार से जुड़े है, ये अंदाज़ लगाना बहुत मुश्किल नहीं है. इसके बीच फिर बड़ी मात्रा में यहाँ के बहुत से पेड़ जो चारा उपलब्द्ध करवाते थे, बहुत से जगंली फल वाले पेड़, लोगों की जिन पर निर्भरता थी, वो मुनाफे का सौदा न थे, इसीलिए बड़ी मात्रा में चीड़, और बाद के दिनों में स्वतंत्र भारत में यूकेलिप्टस जैसे पेड़ों  की भी रोपाई इन सदाबहार जंगलों को नष्ट करने के बाद हुयी. गाडगिल और गुहा की किताब एक सिरे से हमारी आँख खोलती है की वन विभाग ने पिछले १५० साल में हमारे जंगल और पर्यावरण और लोगों के पारंपरिक जीविका के स्रोतों को नष्ट किया है. लोगों के साथ साथ हिमालय के पर्यावरण पर भी इसकी दूरगामी परिणाम हुए है. पानी और नमी ख़त्म हुयी, और पहाड़ की भुरभुरी मिट्टी को जिस तरह से यहाँ के पेड़ बांधे रखते थे, अब वो लगातार धसक रही है. 

पूरे पहाड़ में दूर दूर तक बरसात में जो हरियाली दिखी, वो मुख्यत: गाजरघास या लेंटाना की झाड़ है, जो एक इनवेसिव स्पीसीस है. सर्दी के दिनों यही पहाड़ धूसर और भूरे, पेड़ विहीन दीखते है. बरसात में जो इस बार तबाही हुयी, जगह जगह जमीन धसक गयी है, लोग बेघर हुए है, और जान माल का जो नुक्सान हुआ है, उसका कारण पीछे अतीत में बड़ी मात्रा में जंगलात विभाग और सरकारों की देखरेख में इन जंगलों का नाश है जो १५० की कहानी है. लैंटाना एक मूलरूप से दक्षिणी अमेरिका में उगने वाली झाडी है जिसे एक सजावटी पोधे की तरह १८०७ में भारत में दाखिल किया गया था. भारत में लैंटाना ने बड़ी तेज़ी से फैलना शुरू किया और यहाँ की प्राकृतिक घास और छोटी झाडियों की जगह ले ली. जिसका सीधा असर पशुओं के लिए चारे का संकट के रूप में सामने आया, और दूरगामी असर भारत के जंगलों की प्राकृतिक वनस्पति का हास और पर्यावरण की बनावट में बदलाव आया. कई दशकों के प्रयास के बाद भी वन विभाग लैंटाना को फ़ैलाने से नहीं रोक सका है, और आज हालत ये है की भारत के जो सबसे महत्त्वपूर्ण तीन जैव विविधता के क्षेत्र है तीनो के ऊपर लैंटाना का ख़तरा है.  
 
हाड़ के दुरूह भूगोल ने नही संभवत: लोगों के पारंपरिक संसाधनों के छीन लिए जाने की वजह से लोगों को पहाड़ छोड़ना पड़ा, और दिल्ली, ढाका, पेशावर तक कौने-कौने लोग मजदूरी करने पहुंचे. कुछ लोग लकड़ी काटने वाले ठेकेदारों के आसरे समयसमय पर लकड़ी के चिरान के काम पर जाते रहे. प्रथम विश्वयुद्द ने बड़ी मात्रा में पहाड़ के लोगों को भर्ती किया और लाम पर भेजा. पहाड़ के लगभग सभी छोटे कस्बे मिलेटरी बेस की तरह बने. उसमे हर पहाड़ी छोटे कसबे में भूगोल को छोड़ बाकी समानता भी है, एक बड़ा हिस्सा केंट का होना. पहाड़ के मर्द फौज के लिए, लकड़ी रेल, जहाज़, स्पोर्ट्स गूड्स, फर्नीचर से लेकर फर्श तक के लिए, छोटे-छोटे पहाड़ी शहर पर्यटक और अफसरों की सैरगाह. कुछ इसी तरह का पहाड़ के विकास का खांचा ब्रिटिश भारत में बना, आज़ाद भारत में अब भी जारी है. पहाड़ के लोगों का पहाड़ में होना, वहाँ अपनी गुजर बसर के संसाधन का होना, पहुँच में स्कूल होना, अस्पताल होना इनमे से किसी के भी हित में नहीं था.  और जीवन यापन के लिए दर-बदर भटकते पहाड़ी भगोड़े का टैग लिए खुद भी घुमते है. जो नहीं भागे, लंबे समय तक बेगारी में अंग्रेजो और रईसों की डोलिया और सामन पहाड़ में इधर से उधर ले जाते रहे, जंगल के चीरान में मजदूरी करते रहे, सड़क बनाने के बीच मजदूरी करते रहे. और साहेब लोग कुछ कृपा कर सौ दर्दों की एक दवा शराब को सुचारू रूप से पहुंचाते रहे...

4 comments:

  1. Yah sahi hai ki pahadon ke lihaaz se nayi peedhi mehnat nahi karna chahti. Magar iski shuruaat to pichhli peedhiyon ne hi ki thi. Mere pitaji kehte hain ki ve gaanv se dilli naukri karne isliye aaye kyonki ve aane wali peedhi ko theek tarah se padha sakein.... Yahi baat ab contradict karne lagi hai ya shayad pahadon ke ujaad hone ki wajah bhi ban rahi hai. Aaj kuchh naye kism ki samasyayen bhi wahan paida ho gayi hain jaise bandaron ka aatank, baarish na hona, nadiyon aur soton ka sookhte jana. Cheed ke jangal jo baanj, burunsh, devdaar vagairah ko saaf karke khade kar diye gaye hain, jo na paani de sakte hain na jangli jaanwaron ko khana ve bhi to poora bhoogol badal rahe hain...

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  2. अब भी बड़ी मात्रा में मिर्च, अदरक, हल्दी, मक्का, कोदो, चूड़ी, अरबी, और भी कुछ अनाज अच्छी उपज दे रहे थे और उनको बेचकर लोग अच्छे पैसे कमा रहे थे. इस तरह से अपने लोकल रिसोर्सेज़ पर निर्भरता देखकर और लोगों का संपन्न जीवन देखकर, स्वस्थ बच्चे देखकर अच्छा लगा.


    पढ़कर मन भीग आया कि क्या वाकई ऐसा है?

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  3. दिलचस्प है ..पता नहीं शायद कथादेश या कही खिसकते नैनीताल को किस तरह उस वक़्त अंग्रेजो ने बचाया वो पढ़ा था ...अब पहाड़ पहाड़ नहीं रहे....नष्ट हो रहे है .बचपन में ये मुगालता रहता था के पहाड़ पर रहने वाले कितने खुश रहते होगे....बाद में देहरादून जब पिता का ट्रांसफर हुआ .ओर दो साल काटे तो कई चीज़े समझ आई....मसूरी को नजदीक से देखकर ....डिस्कवरी पर एक पूरा प्रोग्राम आया था ....पहाड़ के संकट का ....पर ये भी सच है इसका दोहन यहाँ के लोग भी कर रहे है

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  4. bandron ( monkeys) NE SAB BARBAD KAR DIYA..

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