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Sep 30, 2010

2010 पहाड़ डायरी -02

आत्मीय रिश्तों की संगत में इत्मीनान होता है, कुछ अपने को फिर से पा लेना होता है, ज़रूरी नहीं कि मतभेद न हो, समझ में आयें सब कुछ ठीक-ठीक, परन्तु न समझ सकने की कसक या समझ लेने की कोशिश का भी अंत नहीं होता. पहाड़ किसी छूट गए आत्मीयजन सा है, मन के बहुत पास, वास्तविकता में बहुत दूर, जिसे  जानने का खुमार है, उसका होना, उसके दुःख-सुख, बहुत कुछ, स्मृति (जो यूं भी समझ के आयने में रोज़ बदलती है) पर ही टिके है. वास्तविकता में पहाड़ कितना बदला उसका अनुमान कुछ व्यक्तिगत स्तर की कही-सुनी-लिखी  बातों, कुछ सार्वजनिक उद्वघोषणाओं, कुछ पढ़कर, या फिर साल-दो साल में दो हफ्ते की छुट्टी बिताने के बीच लगता रहा है, इस बार सीमित समय की कुछ प्लानिंग थी पहाड़ को  कुछ पास से देख लेने की, सुन लेने की, छू भर लेने की. फिर अकसर जैसे होता ही है, जीवन अपने तरह से हमें प्लान कर लेता है, और प्लानिग के बारे में सिर्फ एक ही निश्चिंतता बची रहती है कि कुछ न कुछ गड़बड़ होती जायेगी. इस बार इसके कंट्रोल पैनल पर मौसम सवार था. हर बार कोई दूसरी चीज़ होगी, अपनी अपनी तरह से हम सभी कहेंगे...
"Once a journey is designed, equipped, and put in process, a new factor enters and takes over. A trip, a safari, an exploration, is an entity, different from all other journeys. It has personality, temperament, individuality, uniqueness. A journey is a person in itself, no two are alike. And all plans, safeguards, policing, and coercion are fruitless. We find after year of struggle that we do not take a trip; a trip takes us."
 John Steinback (1962)




 पिछले 13 बरसों में  बरसात में कभी भारत आना हुआ नहीं था.  इस बार एक  महीने  के लिए माँ मेरे साथ थी,  ये तय हुआ कि  माँ के वापस लौटने के साथ मुझे भी कुछ दिनों के लिए जाना है पहाड़. माँ  कहती भी रही कि बरसात में छोटे बच्चों के साथ कई मुश्किलें होंगी, और पहाड़ के भीतर जाना लगभग नामुमकिन है. फिर भी एक बार रस्ते  लग गए तो फिर पहुँच  भी गए, हालांकि मुश्किल की शुरुआत भारत पहुँचने से पहले ही हो गयी.  यूजीन से प्लेन जब सेन-फ्रांसिस्को पहुंचा, उसे उतरने की जगह नहीं मिली कुछ २० मिनट तक और जब तक भागकर इंटरनेशनल टर्मिनल तक पहुंचे,  फ्रेंकफर्ट के प्लेन का दरवाजा बंद हो चुका था, अपने सामने उसे छूटते  देखा, फिर २ घंटे की कोशिश के बाद तय हुया कि हम लोग २४ घंटे के लिए सेन-फ्रांसिस्को में अटक गए है.  बच्चों और माँ के साथ एक रात La Quinta Inn, में बिताई. ये भी संयोंग ही था   कि डेस्क पर हिन्दी बोलने वाला अमित नाम का लड़का मिला, जो करेबियन आईलेंड का था, और उसने बताया कि हिंदी उसने अपने पिता से सीखी है, जो वहां रेडियो नवरंग चलाते है.  किसी तरह तीन दिन बाद दिल्ली पहुँचना हुआ, और टर्मिनल तीन जो उसी दिन खुला था, को देखना सुखद अनुभव रहा. तीन घंटे एयरपोर्ट पर बीतने के बाद एक घंटा नई दिल्ली स्टेशन पर बीता.  मैं उम्मीद कर रही थी कि "कोमनवेल्थ गेम्स" के चक्कर में कुछ फ़ायदा दिल्ली के रेलवे स्टेशन के हिस्से भी आयेगा, जो  नहीं ही आया था.  इस बीच  मेरा  एक  बेटा लगातार मक्खियों के पीछे भागते हुये और दूसरा तरह-तरह के लोगो को देखते हुये अपना मन बहलाते रहा.  बचपन में  भोलापन और ख़ास तरह की अपेक्षा  का न होना संभवत: उनकी खुशी का राज़ रहा होगा .

दिल्ली से देहरादून का सफ़र हरियाली की लम्बी पट्टी से गुजरते हुये जाना है,  बरसात में हरे रंग के सारे संभव शेड्स दिखते है,  रिमझिम पानी में नहाई प्रकृति तृप्त दिखती है.  खेतों और हरियाली के बीच  कुछ पुराने बहुत से नए ईंट के भट्टे खड़े मिलते  है, गहरे खुदे हुये  खेतों  पर नज़र जाती है, मिट्टी ईंट के  भट्टों की तरफ जाते भी दिखती है.  जिस गति से हर छोटे बड़े गाँव, शहर, और महानगरों में कभी न ख़त्म होनेवाला कंस्ट्रक्शन चल रहा है, सोचती हूँ, कितने वर्ष और कि सारी की सारी top soil, को इंटों में बदल जाना है,  कितना और समय है इस हरियाली का, खेती  का, खुशहाली का?.  मिट्टी के ईंट में बदलते ही  वापस फिर मिट्टी बनने की  संभावना  कहां  बचती है, या इसकी ही कि मैं ही  फिर वापस आ सकूंगी इसी मिट्टी में लौटकर किसी दिन  ....

 आम का सीजन लगभग ख़त्म होने को था, लीची का ख़त्म हो चुका था. पिता ने आम-लीची दोनों को फ्रिज और फ्रीज़र में भरकर रखा था. चार दिन लगातार  बच्चे दिन में सोये, रात में उठे  रहते और मैं  इधर उधर कुछ काम करती, फिर रात में जागना होता, फिर कभी दिन में भी झपकी,  माँ भी मेरी तरह नींद से जूझती है, दिन में और रात में भी.  बुआ जी  और पिताजी की बाते, उत्सुकता, और प्यार हमें बीच में खड़े होने का, नींद से लड़ने का संबल देता है. हमारी एक भली पड़ोस की आंटी जी, रोज़ सुबह बहुत दिनों तक दूध लाती है, ताकि माँ की कुछ मदद हो सके.  धोबी जी को बुलाकर में घर के परदे, चादर और दरियां देती हूँ, जो एक महीने बाद तक भी वापस नहीं आयी.  बारिश में हाल बेहाल रहा, देहरादून के कुछ इलाकों में बार-बार पानी भरता रहा, कपड़े धोने और उन्हें सुखाने की सहूलियत उन्हें न मिली. माँ कहती रही कि "धीरे-धीरे खुद ही धो लेते, पर तुझे अक्ल है कहाँ? किसी की सुनती कहाँ है?".  बारिश अब तक रुकी नहीं है, पता नहीं अब भी वों कपडे घर वापस आये या नहीं? 

जितने दिन रही वहाँ, लगातार बारिश, बाढ़, भूधसांव, बादल और जमीन फटने की खबरे आती रही, कपकोट के स्कूल में छत के ढहने से १८ बच्चों की मौत की खबर चल रही है. कई पुल टूटे हुये है. रात को दो बजे पता चलता है कि देहरादून के माजरा वाले इलाके में घरों के भीतर पानी आ गया है. लगातार बरसात है, बरसात की खबर है, और बच्चे चिंतित है कि हमारे घर तक कब बाढ़ पहुँच रही है. अपने गाँव जाने की कोई सूरत महीने भर में नहीं बन पायी. हनुमंती का पुल टूटा रहा. खबर ये भी है कि ३०० सालों से खड़ा घर जो था गाँव में, उसका आधा हिस्सा टूट गया है. शेषहाल अभी पता लगना बाकी है.  नैनीताल और हल्द्वानी का रास्ता भी टूटा रहा, अल्मोड़ा में तहस नहस अब तक जारी है...

इस सबके बीच फिर कुछ देर को धूप खिली, बारिश रुकी, बन्दर आते जाते रहे, घर के बाहर ही नहीं, रसोई के  भीतर तक और एक दो बार कपडे उठाकर भी ले गए. बंदरों की इस कदर बढ़ी आवाजाही की वजह कुम्भ मेले के प्रबंधन से जुडा भी बताया गया कि हरिद्वार के बन्दर भी अब देहरादून और दूसरे शहरों में है. पिता के पास बन्दर को दूर से भागने के लिए एक गुलेल है, पिता कहते है कि "देहरादून के बन्दर औरतों से नहीं डरते, इसीलिए उनके पीछे नहीं दौड़ना"


 मैं हैरान होती हूँ कि उत्तराखंड की भूमी का ८०% वन विभाग के कब्ज़े में है,  पहाड़ में  सिर्फ ७% खेती की जमीन है.    कभी सोचती हूँ कि ब्रिटिश भारत और  आज़ाद भारत की सरकार का उत्तराखंड की जमीन पर जो कब्ज़ा गहराता रहा है,  पीढी दर-पीढी लोगों के पास खेती और मेहनत करके गुजारे का अकेला संसाधन जो ज़मीन थी, कम होती गयी.  फारेस्ट रीसर्च इंस्टिट्यूट के सामने से, इसके भीतर, और बाहर गलियारों  में गुजरते हुये ख्याल आता है कि फारेस्ट रीसर्च इंस्टिट्यूट की देहरादून में स्थापना का कोई सीधा सिरा  अंग्रेजों के  जल, जंगल और जमीन की  हडपने की नीती से न रहा हो ये कैसे मुमकिन है? क्या  विस्थापन की एक एतिहासिक वजह ये रही होगी?. उसके कुछ तार भी कहीं जुड़ते होंगे कि क्यूं विकास की परिधि के बाहर छूटा  रहा पहाड़? या सिर्फ ये मान  लिया जाय कि  जो पहाड़ के गाँव के गाँव खाली हो गए है, वों सिर्फ अपनी सरल भूगोल में बस जाने की चाह में खाली हुये है,  और साल, सागौन, शीशम,चीड़    की लकड़ी और भी कितनी बहुमूल्य अकूत वन संपदा है उत्तराखंड में वों कोई  प्रत्यक्ष और परोक्ष वजह न रही होगी.
 वन प्रबंधन की जो भी नीतियाँ है, उससे उपजे जो  परिणाम है,  उनके असर पहाड़ के जन जीवन पर बहुत गहरे पड़ते है,  चाहे वन पंचायत की जमीन से अंतत: गाँव के लोगों के हक ख़त्म होने की बात हो, या घास और लकड़ी को जंगल से लाने पर प्रतिबन्ध हो, या फिर जंगली जानवरों की संख्या में अनियंत्रित तरीके से बढे और वों जंगल की सीमा के  बाहर खेती के लिए, मनुष्य और पालतू जानवरों के लिए खतरा बन जाय. उससे पार पाना पहाड़ के लोगों के बस में नहीं है, बस में पहाड़ के किसानों के  सिर्फ इतना है कि इस मार और उस मार को सहते रहे, और पहला मौक़ा जो भी मिले जीविका के लिए दर-ब-दर घुमते फिरे.  बंदरों का आतंक सिर्फ देहरादून में ही नहीं दिखा, बल्कि बाद में ये भी पता चला की बंदरों और जंगली सूअरों की संख्या पहाड़ में इस कदर बढ़ चुकी है, कि जो बहुत थोड़े से लोग गाँव में बचे रह गए है, उनके लिए खेती करना असंभव हो गया है. बाद के दिनों कुछ  गाँवों  के रास्ते, लोग हमें दिन दहाड़े खेतों की रखवाली करते दिखे. एक ९५ से १०० साल की दादी मिली जो सुबह ६ बजे से दिन १ बजे तक खेत में इसीलिये बैठी थी कि बन्दर भगाने है. एक प्रायमरी स्कूल के रिटायर प्रिंसिपल भी खेत में रखवाली के दौरान ही मिले. गाँव के आस-पास बाघ के मंडराने की भी खबरे मिली, और ये भी कि किस तरह से आये दिन कुछ गाय, कुछ बछड़े, बकरियां बाघ उठाकर ले जाता रहा है. ये भी कि जंगली सूअर को फांसने को जो घात किसी ने गाँव में लगाई थी, उसमे एक बाघ फंसकर मर गया, और दो ग्रामीण छ: महीने से जेल में है.  तीन साल पहले अस्कोट-आराकोट की यात्रा के अनुभव सुनाते हुये, डाक्टर शेखर पाठक ने दूर दराज़ की एक महिला का किस्सा सुनाया कि कैसे भालू के हाथ पेड़ की ओट से पकड़कर उसने भालू की छाँ कर दी, और एक ग्रामीण का पूरा चेहरा भालू के हमले में घायल हुया.   इस बीच मोबाईल फ़ोन ने कई तरह के नुकसान के बावजूद इनकी पहुँच गाँव तक और गरीब तबकों तक भी हुयी है, एक मज़ाक के किस्से की तरह ये भी पता चला कि पेड़ पर जंगल में चढी एक ग्रामीण महिला ने मोबाईल से घर फ़ोन किया, कि पेड़ के नीचे भालू खड़ा है, और वक़्त पर मदद उस तक पहुँची.
 जिन लोगों का जीवन बन्दर, भालू और बाघ के डर   और गतिविधियों से प्रभावित है, या होता है, उनकी भरपाई या समाधान की चिंता शहरी मीडीयां या फिर उत्तराखंड की दससाला  सरकार की चिंता का कभी सबब बनेगी? अमेरिका में भी हिरणों की संख्या हर साल बढ़ जाती है, और उसे नियंत्रित करने के लिए शिकार की अनुमति दी जाती है. बड़ी संख्या में घरेलू कुत्ते, बिल्ली आदि को स्टरलाइज किया जाता है. बंदरों की समस्या के लिए शायद ये एक मानवीय तरीका हो सकता है, कोई अन्य समाधान हो तो उसे भी ढूंढा जाना चाहिए, मसलन जंगल की सीमा पर कुछ ultrasonic या फिर infra-red घेरा भी बनाया जा सकता है कि जन जीवन और वन्य जीवों के बीच कोई संतुलन हो सके. इस तरह की तकनीकी का इस्तेमाल रोज़ के जीवन में अमेरिका में देखते आयी हूँ. घरो की छोटे शहरों में अकसर कोई बाउंडरी नहीं होती, और कुत्ते बिल्लियों को अपने घर की सीमा में रखने के लिए इस तरह की तकनीकी का इस्तेमाल किया जाता है. अकसर कार पर लगाने के लिए भी कुछ बहुत सस्ती डिवाईस आती है, जो ख़ास किस्म की ध्वनी संचारित करती है, जिसे सिर्फ जानवर सुन सकते है, मनुष्य नहीं, और इसी लिए चलती कार से १० फीट की दूरी रखते है. चूँकि ८०% की उत्तराखंड की भूमी सरकारी नियंत्रण में है, तो किसी भी तरह से लोगों के पास इस तरह के अधिकार और रिसोर्सेस नहीं है कि जंगल की इस तरह की घेराबंदी करे. सरकार की ज़रूर इस दिशा में सचेत पहल की जिम्मेदारी बनती है, वन्य जीवों के प्रति भी और उस भूखंड में रहने वाले लोगों के प्रति भी....,

पता नहीं ख्यालों की दुनिया में उत्तराखंड घुमते हुये, दुनिया के नक़्शे के दूसरे भूखंड बार-बार तुलना के लिए मानस में आते है, कि ज़रा सी पहल से, किसी सूचना और तकनीक से यहां का जीवन भी कुछ कम कष्टभरा  हो सकता है.  उत्तराखंड से बाहर रहती हूँ, तो लगातार उत्तराखंड जहन में बना रहता है.  पिछले महीने कोबरा पर काम करने वाली एलिस से माईनोट में मिलना हुआ था. बहुत देर तक हम सांप, कोबरा, अजगर पर बात करते रहे. एलिस , जर्मनी में पली बढ़ी थी,  एक तरह से सांप का आकर्षण  यूनिवर्सिटी  तक खींच कर लाया था उसे और अब दुनिया भर के जहरीली साँपों की बनावट पर उनकी गति पर रिसर्च करती है. बिन -हाथ पैरों वाला सांप कैसे दुनिया में जीता होगा उसकी अपने जीवन की एक मुख्य चिंता बन गया.  उसी से पता चलता है कि दरअसल सांप के लिए जहर बेशकीमती है, और अगर जरूरत न हो तो उसे सांप जाया नहीं करता. ५०% कोबरा का डंक जहर लिए नहीं होता. सिर्फ डराने के लिए ही होता है. एलिस से बातचीत करते हुये मैं लगातार  उत्तराखंड के पहाड़ और तराई में बीते दिनों में लौटती रही.  हर बरसात पहाड़ और खासकर तराई में कितने बच्चे, कितनी औरते सांप के काटने से मर जाते है, कही मीलों दूर तक भी एंटी-वीनोम के इंजेक्शन नहीं मिलते.  बचपन के दिनों में जब कितने कितने लोग सांप के काटे हुये, मेरे दादाजी के पास आते थे, और कितनी बार तो होता था कि दिन में रात के किसी भी पहर वों किसी को बचाने एक गाँव से दूसरे में अस्सी साल की उम्र में भी जाया करते थे.  कितनी बार तो होता कि दादी और माँ उन्हें कहते कि इस उम्र में मत भागो, बीमार हो जाओंगे, कहीं गिर पड़ोगे, किसी तरह की कोई कमाई कभी की नहीं तो जो पुण्य हुआ  अब बहुत हुआ. दादाजी ने कभी सुनी नहीं, उनका विश्वास बना रहा कि अगर अपनी सेवा के बदले उन्होंने पैसे लिए तो उनका मन्त्र काम करना बंद कर देगा.  प्रेमचंद की मन्त्र कहानी कुछ अपनी जानी पहचानी कहानी लगती थी.  एलिस से बात करते हुये कितनी बार सोचती हूँ कि क्या ये महज इत्तेफाक रहा होगा, कि सांप के काटे दादाजी के पास जितने लोग आये होंगे, वों सब वही होंगे जिनके भीतर कोबरा ने ज़हर नहीं उडेला था.या फिर कुछ पारंपरिक तरीके कई पीढीयों ने खोजे थे, वों भी खो गए है, और नया अभी पूरी तरह पसरा नहीं है.


 देहरादून में एक डॉक्टर से दूसरे, फिर इस टेस्ट के बाद दूसरे पथोलोजी में चक्कर काटते माँ को लेकर एक पूरा दिन बीतता है. आधा दिन अपने बेटे के साथ एक डाक्टर की दुकान पर भी बीतता है.  सुबह ग्यारह बजे से पहले किसी भी डाक्टर का मिलना असंभव है.  हर जगह लम्बी कतारे है, कतार के बीचों बीच चेहरे पर बदहवासी और नींद लिए दो औरते छोटे बच्चों को लेकर खड़ी है, शायद बहुत लंबा सफ़र तय करके देहरादून पहुँची थी.  हर डॉक्टर के घर में एक दुकान  है, वहाँ भीड़ है, दो-तीन लोग किसी पेथोलोजी के बैठे है, जो बिना दस्ताने पहने लोगों का खून जांच के लिए निकाल रहे है, मळ-मूत्र के सेम्पल इकठ्ठा कर रहे है, २००-३०० रूपये की पर्ची कटा रहे है.  एक स्किन स्पेशलिस्ट के यहां प्रमोद के साथ जाती हूँ, प्रमोद से बीच बातचीत में रहा नहीं जाता, और धीरे से फुसफुसाते है कि डॉक्टर के नाखूनों की तरफ देखकर कहते है " कितने सलीकेदार हाथ है, मेनिक्युर्ड!".  मेरा ध्यान हाथ में फंसी तीन डायमंड की बड़ी अंगूठीयों और एयररिंग्स की तरफ जाता है.  स्किन स्पेलिस्ट की दुकान में सबसे बड़ा विज्ञापन, लेज़र से चेहरे के और भी बाकी शरीर के बालों को स्थाई रूप से कैसे निजात पायी जाय, इसका है.  मैं बाद में प्रमोद से कहती हूँ कि यूं ही तो नहीं होगा कि एक औसत दिन में इतने ताम-झाम के साथ, इतनी कीमत के पांच हीरों में सजकर एक छोटे क्लिनिक की डॉक्टर आती है?  है कोई सम्बन्ध  जिस तरह की केयर मरीज़ को मिलती है, और जितने पैसे वों दिनभर में इस डॉक्टर, उस डॉक्टर, इस पेथोलोजी, से दूसरी तक फूंकता है?  सिर्फ डाक्टरों की दुकाने है, इतने सारे डाक्टर, पथोलोजी, और अल्ट्रा-साउंड की दुकाने ही है, अस्पताल एक तरह से इस पूरी राजधानी में मुझे ढूंढें नहीं मिलते, जहाँ एक बार कोई बीमारे में जाय और  ठीक से दवाई लेकर घर लौट जाय या ठीक डायग्नोसिस का इत्मीनान लिए लौट जाय.

हर बार माँ और पिता को डांटती रहती हूँ कि बीमार पड़ने पर किसी ठीक-ठाक डॉक्टर को दिखाकर आओ. खुद जाकर पता चलता है कि किसी सटीक डायग्नोसिस की गुंजाईश उत्तराखंड की राजधानी में भी कितनी मुश्किल है? बीमार आदमी शायद कुछ आराम से ठीक हो जाय पर बीमारी में पूरे-पूरे दिन यूं भटकने का बोझ जब तक संभव हो नहीं उठाना चाहता. पिता ने रामदेव के योग के असर में अपना वजन और स्वास्थ्य काफी हद तक ठीक किया है, और एक चलती फिरती रामदेव की डिस्पेंसरी उनका बेडरूम है.  सायंस की समझ मुझे उनकी तरह सहज विश्वासी नहीं बनाती, अब लगता है कि विरोध से भी क्या हासिल होना है?  किसी बहुत छोटी सी बीमारी के लिए भी अगर देहरादून जैसे शहर में किसी डॉक्टर तक पहुँचने में इतनी बड़ी झंझट हो, तो फिर लोगों के पास क्या चारा है, बाबा रामदेव के अलावा, या फिर सदूर देहातों में भी किसी वैध, किसी झाडफूंक करने वाले, या किसी फार्मेसिस्ट, किसी झोलाछाप नकली डाक्टर से इलाज़ कराने के अलावा? बिना विकल्प के किसी भी चीज़ को कोसने का मुझे हक भी क्यूं  हो?
फिर से मन किसी दूसरे छोर पहुँच जाता है. दुनिया के सबसे ज्यादा डाक्टर इस देश में ट्रेन होते है, अच्छे दिमाग और ट्रेनिंग वाले डाक्टर है. विकसित देशों में भी हिन्दुस्तानी डाक्टरों की अच्छी खपत है, इतनी बड़ी जनसंख्या  वाले देश में, बावजूद पिछले दो दशक में इतने पैसे की भरमार हुयी है, फिर भी स्वास्थ्य सेवाएं क्यूं बदतर हुयी है? पब्लिक सेक्टर के अस्पतालों का ढांचा और विश्वशनीयता  क्यूं  चरमरा रही है? प्राइवेट सेक्टर भी इतनी बढ़त के बाद भी, बुनियादी किस्म की सुविधा क्यूं नहीं व्यवस्थित कर पा रहा है? बार-बार उत्तराखंड से भागकर मन ग्लोबभर में घूमता रहेगा फिर वापस आयेगा यंही,  इसी झाड़-झखाड के बीच, उसी खुशबू, उसी बीहड़ की तरफ...

करीने लगी कोई क्यारी
या सहेजा हुआ बाग़ नहीं होगा ये दिल
जब भी होगा बुराँश का घना दहकता जंगल ही होगा
फिर घेरेगा ताप,
मनो बोझ से फिर भारी होंगी पलके
मुश्किल होगा लेना सांस
मैं कहूंगी नहीं सुहाता मुझे बुराँश,
नहीं चाहिए पराग....
भागती फिरुंगी, बाहर-बाहर,
एक छोर से दूसरे छोर
फैलता फैलेगा हौले हौले,
धीमे-धीमे भीतर कितना गहरे तक
बुराँश बुराँश ...
 
जारी ..............

5 comments:

  1. एक सांस में पढ़ डाला।

    उस दिन इस बारिस और सड़क धंसाव में मैं भी फंसा था..बड़ा ही डरावना था वह सब ...जब नैनीताल में 36 घंटे तक ना बिजली थी और ना पानी..खैर वह फिर कभी..

    अभी तो आपकी डायरी पढ़ते हैं।

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  2. बारिश ने तो इस बार रुला ही डाला। मैं क़िस्मत से कुछ बच गई, लेकिन मां पिथौरागढ़ गई १५ दिन के लिए और रुकना पड़ा लगभग डेढ़ महीना। लंबे समय बाद अपनी जड़ों की ओर लौटना नॉस्टेलजिक तो बना ही देता है। ख़त्म कहां होती हैं,भीतर गहरी धंसी रहती है जड़ें, मौक़ा मिलते ही फैलने लगती हैं। अंत में छोटी सी दहकती कविता ने वो सब कह दिया जो शायद गद्य में नहीं कहा जा पा रहा था। मन गिर्दा की कविता का दिगौ लालि जैसा होने लगा है.....।

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  3. बहुत सुंदर। इस देश को आप जिस तरह देख रही हैं, हम यहां रहते हुए उसे हर क्षण महसूस करते हैं। और कितना विचित्र है न, मैंने अभी अभी अखबार के लिए सुपर पॉवर भारत का गुणगान करता हुआ एक पीस तैयार किया है।
    खैर, लेकिन आपने बहुत खूबसूरत लिखा है। अपनी जानी-पहचानी दुनिया में यूं लौटकर जाना। एक साथ कितने रंग टूटकर बिखरते हैं भीतर। मैं खुद उसे महसूस कर पा रही हूं।

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  4. बहुत दिनों के बाद पढ़ा आपका ये आलेख। मुझे लगता है, ग्लोबल पर्सपेक्टिव बीच में सामिल हो जाने के कारण ही आप यहां की, हमारे लिए रोजमर्रा की, आदतन चीजों को आप समस्या के तौर पर देख पाती हैं और उनके समाधान के रास्ते भी पाने की कोशिश करती हैं। यहां हम बुराइयों, गड़बड़ियों के इतने आदी होने लगे हैं कि वो समाधान खोजने को प्रेरित ही नहीं कर पातीं। डॉक्टर, स्वास्थ्य व्यवस्था पर खीझी मैं भी बहुत, लेकिन इसकी जड़ तक आपने पहुंचने की केशिश की है, साधुवाद। सचमुच, लोग ओझा-तांत्रिकों, झोलाछाप या जड़ी-बूटी चिकित्सकों के पास दौड़े जाते हैं, बिना 'क्वालिफाइड' डॉक्टरों से सलाह किए, तो इसका कारण उनका इधर अविश्वास और उधर विश्वास नहीं बल्कि उधर सहूलियत और इधर पूरी व्यवस्था में कई जगह खड्डों से भरे रास्ते ही हैं।

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  5. पहाड़ पर लिखी यह श्रृंखला संजोकर रखने लायक बनेगी। पहाड़ तो आपके साथ संसार घूम रहा है, आपके भीतर बसा है।
    घुघूती बासूती

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