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May 18, 2009

चुनाव मे आधी आबादी की भागीदारी

चुनाव परिणाम से लोग हकबकाए है, और चुनाव से पहले महिला और दलित सशक्तिकरण के नाम पर मायावती को ओबामा के समकक्ष भी खडा किया जा चुका है। पर एक चीज़ जिस पर इस पूरे चुनाव मे बहस नही हुयी वों है महिलाओं से जुड़े मुद्दे, सुरक्षा के, सार्वजानिक जीवन मे , कार्यस्थल मे गैर बराबरी के मुद्दे। चुनाव मे महिलाओं की भागीदारी की स्थिति पर नज़र डाले तो वों ५-९% के बीच है । लेफ्ट, राईट, सेण्टर, सभी दलों मे महिला उम्मीदवारों की उपस्थिति हाशिये पर है। ये शायद हमारी आँख मे उंगली डालकर दिखाने के लिए काफी है की भारतीय लोकतंत्र मे औरते बराबरी पर नही बल्कि हाशिये पर है। और लोकतंत्र मे उनकी शिरकत आजादी के इतने सालो के बाद बढ़ने के बजाय कम हुयी है। ...................

Party wise Candidate List

PARTY ABBRE PARTY NAME PARTY TYPE Male Female Total
BJP Bharatiya Janata Party N 334 30 364
BSP Bahujan Samaj Party N 415 20 435
CPI Communist Party of India N 32 2 34
CPM Communist Party of India (Marxist) N 62 7 69
INC Indian National Congress N 372 45 417
NCP Nationalist Congress Party N 27 5 32
AC Arunachal Congress S 1
1
ADMK All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam S 31 2 33
AGP Asom Gana Parishad S 12
12
AIFB All India Forward Bloc S 10
10
AITC All India Trinamool Congress S 27 6 33
BJD Biju Janata Dal S 11 1 12
CPI(ML)(L) Communist Party of India (Marxist-Leninist) (Liberation) S 61 4 65
DMK Dravida Munnetra Kazhagam S 13 3 16
FPM Federal Party of Manipur S 1
1
INLD Indian National Lok Dal S 19 1 20
JD(S) Janata Dal (Secular) S 39 4 43
JD(U) Janata Dal (United) S 70 3 73
JKN Jammu & Kashmir National Conference S 6
6
JKNPP Jammu & Kashmir National Panthers Party S 7
7
JKPDP Jammu & Kashmir Peoples Democratic Party S 2 1 3
JMM Jharkhand Mukti Morcha S 7 2 9
KEC Kerala Congress S 1
1
KEC(M) Kerala Congress (M) S 1
1
MAG Maharashtrawadi Gomantak S 2
2
MDMK Marumalarchi Dravida Munnetra Kazhagam S 4
4
MNF Mizo National Front S 1
1
MPP Manipur People's Party S
1 1
MUL Muslim League Kerala State Committee S 10
10
NPF Nagaland Peoples Front S 3
3
PMK Pattali Makkal Katchi S 6
6
RJD Rashtriya Janata Dal S 40 1 41
RLD Rashtriya Lok Dal S 29 4 33
RSP Revolutionary Socialist Party S 19 1 20
SAD Shiromani Akali Dal S 9 1 10
SAD(M) Shiromani Akali Dal (Simranjit Singh Mann) S 6
6
SDF Sikkim Democratic Front S 1
1
SHS Shivsena S 53 3 56
SP Samajwadi Party S 213 24 237
TDP Telugu Desam S 29 4 33
UGDP United Goans Democratic Party S
1 1
UKKD Uttarakhand Kranti Dal S 4
4

May 11, 2009

चाय की चाह तीन हज़ार साल पुरानी

पहाड़ मे लोग चाय पीने के खासे शौकीन होते है। काली नीबू की चाय। कश्मीरी सोडा वाली पिंक चाय, अदरक -इलायची की चाय या फ़िर तिब्बती और भोटिया लोगो की खूब घी वाली चाय। उसके बाद कुछ ब्रांड बाहर की चाय के भी है, ग्रीन टी, उलंग टी, ब्लैक टी, पुरेह आदि । दो अनोखी चाय जो अभी तक चखी नही है...

१-सफ़ेद चाय
२। पुरेह
चाय के तलबगारों के लिए चाय के बारे मे कुछ ........................

Tea, though ridiculed by those who are naturally coarse in their nervous sensibilities … will always be the favorite beverage of the intellectual.”
Thomas De Quincey (1785–1859)

चाय का इतिहास

Date Event
3000 B.C. - Tea discovered in China or introduced from India
350 B.C. - First written description of Tea drinking in China.
450 A.D. - Turkish traders bargain for Tea and the Silk road is born.
800 - Tea introduced to Japan.
1450 - Japanese Tea ceremony created and popularized
1610 - Dutch bring Tea to Europe
1773 - Boston Tea party, rebellion against England’s tea tax
1776 - England sends first Opium to China to help pay for tea.
1835 - First experimental tea plantations in Assam, India.
1908 - Tea bags invented in New York.


May 8, 2009

निस्संतान हिन्दू विधवाएँ अपनी वसीयत आज ही करें : हिन्दू उत्तराधिकार कानून तुरंत बदलने की आवश्यकता

दिनेश राय द्विवेदी जी के ब्लॉग पर आज की पोस्ट मेरी दृष्टी मे बेहद महत्तवपूर्ण है, की स्त्री की सम्पति का उत्तराधिकार किस तरह बिना किसी सर-पैर के पुरूष के पक्ष मे झुका हुया है। ये फैसला एक निसंतान, विधवा स्त्री नारायणी देवी के संपत्ति मे उत्तराधिकार से जुडा है. नारायणी देवी विवाह के सिर्फ़ तीन महीने के भीतर विधवा हो गयी थी। उन्हें ससुराल की संपत्ति मे कोई हिस्सा नही मिला, और निकाल दिया गया. नारायणी देवी ने अपने मायके मे आकर पढाई लिखाई की, और नौकरी की। उनकी मौत के बाद नारायणी देवी की माँ और उनके ससुराल वालो ने उत्तराधिकार के लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी। लगभग ५० साल बाद फैसला आया है और नारायणी देवी की सम्पत्ति का उत्तराधिकार उनके भाई को नही मिला बल्कि उनकी ननद के बेटों को मिला है.

उत्तराधिकार कानून जिसके हवाले ये फैसला दिया गया है, वों १९५६ का बना हुआ है और उस कानून मे स्त्री की सम्पत्ति मे सिर्फ़ उस सम्पत्ति का ज़िक्र है जो उसे या तो मायके से मिली है या फ़िर पति और ससुराल से स्त्री की अर्जित सम्पत्ति का इसमे उल्लेख नही है और १९५६ मे क़ानून बनाने वालो को हो सकता है की इस बात का इल्म रहा हो की ६० साल बाद स्त्रीयों के पास ऐसे मौके होंगे की वों ख़ुद कमा सके, और स्त्रीयों की एक बड़ी जनसंख्या इस ज़मात मे शामिल हो जाय चौकाने वाली बात ये है की ये फैसला २१वी सदी मे होता हैऔर अभी भी ये कानून जस का तस है।
एक लोकतंत्र के नागरिक के बतौर ये आस्था बनती है, की समय और ज़रूरत के मुताबिक क़ानून मे परिवर्तन हो सकता है। पिचले ५० सालो मे क्यों किसी ने इन काले कानूनों को बदलने की ज़रूरत नही समझी? इस वज़ह से ये फैसला और भी महत्तवपूर्ण हो जाता है की २१वी सदी का भारत कहाँ जा रहा है? स्त्री सशक्तीकरण के तमाम डंको के बीच क्या वाकई हमारा समाज स्त्री की अस्मिता के लिए प्रयासरत है? या फ़िर बाज़ार और ज़रूरत के हिसाब से स्त्री दिमाग और दो काम कराने वाले हाथ हमारे सामाजिक तंत्र मे फिट हो गए है, पर अस्मिता, आत्म-सम्मान, सुरक्षा और और समानता के मुद्दे आज भी मध्यकाल जमीन पर पड़े हुए है।

क़ानून की दृष्टी मे अगर आज भी स्त्री के माँ-बाप, अपना भाई उसकी अर्जित संम्पति का उत्तराधिकारी नही हो सकता और कानूनन हक़ मृत पति के माता-पिता, भाई, बहन (उनके बच्चे या फ़िर किसी भी नामलेवा रिश्तेदार) का है। (द्विवेदी जी के ब्लॉग पर इसका भी उल्लेख देख ले मूल लेख के साथ)? प्रेक्टिकली ससुराल मे इस तरह का कोई भी रिश्तेदार हों, ये असंभव हैऔर इस असम्भावना के बाद ही स्त्री के मायकेवालों का नाम आता है। पति भले ही मर जाए, और ससुराल वालो की स्त्री की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा की कोई जिम्मेदारी भी बने, पर फ़िर भी स्त्री उनकी सम्पत्ति है। पति नही है फ़िर भी पति का परिवार स्त्री के ऊपर और उसकी मेहनत पर या ख़ुद अर्जित की सम्पत्ति पर दावा ठोक सकता है। और बेहद बेशर्मी के साथ हमारा समाज और कानून इसे समर्थन देता है। खासकर एक ऐसे समय मे जब स्त्री सशक्तिकरण का डंका पीटा जा रहा है। और आजाद हिन्दुस्तान के ६० सालो के इतिहास मे स्त्रीओ ने सामाजिक-राजनैतिक जीवन मे उल्लेखनीय योगदान किया है।

इस तरह के फैसले जिस समाज मे आते है, कानूनी और सामजिक रूप से स्वीकार्य है, उस समाज मे कैसे ये आपेक्षा की जा सकती है की माता-पिता , अपनी संतानों को बिना भेदभाव के एक सी शिक्षा, सम्पत्ति पर अधिकार, और अवसर दे ?

अगर किसी माँ-बाप की सिर्फ़ बेटी ही बुढापे का सहारा हो, उसे वों पढाये लिखाए, और किसी दुर्घटना के चलते वों संतान रहे, और उस बेटी की अपनी संपत्ति ससुरालियों के हवाले हो जाय तो, कोन उन माँ-बाप को देखेगा?

ऐसे मे पुत्र की कामना मे कन्या भ्रूण ह्त्या को कोन रोक सकता है? अगर अपने सीमित संसाधनों मे से माता-पिता को पुत्र और पुत्री मे से किसी एक को जीवन के बेहतर अवसर (जैसे शिक्षा, रोज़गार के लिए धन, ) देने का चुनाव करना हो तो वों क्या करे?

स्त्री के लिए , वों भी नारायणी देवी जैसी हिम्मती स्त्री के लिए और उन माँ-बाप के लिए जो अपने संसाधन अपनी ऐसी बेटी की शिक्षा मे या रोज़गार के रास्ते मुहय्या करने मे लगाते है, उनके लिए कहां कोई आशा है? एक तीन महीने का विवाह एक स्त्री के खून के संबंधो पर उसके अपने अस्तित्व पर लकीर फेरने के लिए काफी है। कानूनी रूप से , सामाजिक रूप से स्त्री के अपने रिश्ते, अपने माता-पिता, नामलेवा ससुराली संबंधो के आगे हीन हो जाते है। इसका ज़बाब क्या है?

एक नागरिक के बतौर आज भी स्त्री दोयम स्थिति मे है, और स्त्री के सीधे अपने खून से जुड़े सम्बन्ध, अपने मायके के सम्बन्ध सामाजिक और कानूनी रूप से दोयम दर्जा रखते है। आज एक बड़ी वर्क फोर्स की तरह से परम्परागत सेटउप मे भी स्त्रीओ ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है। और स्त्री की अर्जित संपत्ति के उत्तराधिकार के मामले अपवाद न रहेंगे. ऐसे मे समान नागरिक अधिकारों की बात तब तक नही हो सकती जब तक स्त्री के संपत्ति मे हिस्से, और स्त्री की अर्जित सम्पत्ति के उत्तराधिकार भी पुरूष के समकक्ष हो। स्त्री के अपने संबंधो मे और अपने माता-पिता के घर से जुडी जिम्मेदारियों मे वही रोल हो जो एक पुरूष का अपनो के प्रति होता है. तभी शायद स्त्री का सशक्तिकरण हो सकता है।

इस तरह के फैसलों का आना, उस सामाजिक और लोकतांत्रिक मंशा का असली चेहरा दिखा देता है जो नारी सशक्तिकरण के गुब्बारे के पीछे ढका रहता है. ५०% आबादी के नागरिक अधिकारों से जुड़ा कोई एक भी मसला चुनाव मे ईशू नही बनता, किसी नेता के चुनावी वादों मे शामिल नही होता। इससे अंदाज़ लगाया जा सकता है कि स्त्री सशक्तिकरण , लैगिक समानता और एक जीने लायक समाज बनाने के लिए हमारा समाज कितना चैतन्य है?

महिला प्रधानमंत्री, महिला रास्त्रपति, महिला मुख्यमंत्री और डाक्टरों की, इंजीनियरों की, और IAS अफसरों की पूरी महिला फौज महिलाओं की दोयम स्थितियों को बदलने के लिए काफी नही हैलोकतंत्र मे एक सचेत और सामूहिक प्रयास ही इसका हल है, पर एक लोकतंत्र की तरह अभी हमने जीना कहा सीखा है? उसका सही इस्तेमाल और ज़रूरत कहा सीखी है? कहाँ सीखा है, कि व्यक्तिगत परेशानिया भी सामाजिक संबंधो और सरचना की उपज है, और उनका परमानेंट इलाज़ भी इन्हे बदल कर ही आयेगा। व्यक्तिगत ऊर्जा कितनी भी लगाओ, उससे निकले समाधान व्यक्ति के साथ ही खत्म हों जायेंगे।